सूर्यास्त
बॉस के कमरे की अधखुली खिड़की। उसने डूबते सूरज को देखते हुए कहा-
“आप मेरे
प्रमोशन की बात को हमेशा टाल जाते है.... मेरे हसबेंड के लिए आहूजा ग्रुप में
सिफारिश भी नहीं की अब तक... .. उन्होंने तीन महीनों से बातचीत बन्द कर रखी है।
हमेशा नाराज रहते है, रोज
ड्राइंग रूम में सोते है। पता है, मैं कितनी परेशान हूँ... इस बार पीरियड भी नहीं आया है।”
कहते-कहते
वो अचानक मौन हो गई।
कमरे में चीखता हुआ सन्नाटा पसर गया था।
क्षितिज
पार सूरज तो कब का डूब चुका था।
ठंडी थाली
पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी।
पति ने
दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था। उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति
भुनभुनाये :
“आ गए लौट
के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का
इन्तजाम करके, दो दिन
में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”
क्रोधित
मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-
“अब फिर
बहाने बनोओगे कि फलाने-ढिकाने की तबियत ख़राब हो गई थी.....ये हो गया था या वो वो
..... देखो बल्लू अब ये नहीं चलेगा...... एक तो तुमको पांच हजार की पेमेंट दे.....
रोज़ खाना भी खिलाये और तुम ऐसा करों....... अब तुम्हारी पेमेंट से दस दिन का पैसा
काटूँगा और नौकरी करना है तो अपने खाने का इंतजाम कर लो।”
उसे कार की चाबी देकर दरवाजा बंद कर दिया। पति डाइनिंग टेबल के पास पहुँच
गए।
पत्नी – “खाना ठंडा है, मैं गरम कर लाती हूँ। “
पति – “नहीं रहने दो, भूख नहीं है, खाने का मन नहीं कर रहा।”
पत्नी – “मन तो मेरा भी नहीं है।”
देर तक
दोनों मौन बैठे रहे. इस मौन की चुप्पी पति ने तोड़ी.
पति – “बल्लू अब कुछ ज्यादा ही सिर चढ़
गया है।”
पत्नी- “सही कहा....”
फिर
चुप्पी.....
पति- “बल्लू कल शाम से ट्रेन में बैठा
होगा, आज बारह
बजे पहुँचा होगा। लगता है अपने कमरे पे नहीं गया, सीधे यहीं आ गया।”
पत्नी- “मैं भी यही सोच रही थी।”
पति – “वो कल शाम से भूखा होगा।”
पत्नी – “हाँ होगा तो....”
पति- “ऐसा करो एक थाली परोस के दे आओ
उसे।”
एक निपुण
गृहणी के सधे हाथ अकस्मात ही बड़ी तत्परता से सक्रीय हो गए।
थाली
परोसी और दरवाजा खोलकर बल्लू को आवाज लगाईं। बल्लू दौड़ते हुए आया... देखा माता अन्नपूर्णा थाली लिए खड़ी है।
आशा और
विश्वास से प्रफुल्ल ड्रायवर की कृतज्ञ द्रवित आँखें।
पत्नी
लौटकर आई तो देखा कि पति थाली परोसकर, बड़े ही चाव से ठंडी दाल के साथ
ठंडी चपाती खा रहे थे।
बाबुल
इस बार वह अकेली मायके आई थी. वो जब भी आती, बाबा से लिपट जाती तो बाबा खूब
दुलारते. आखिर बाबा के परी थी वो. लेकिन इस बार बाबा, बस ससुराल वालों की खैर-खबर
पूछकर बाहर चले गए. माँ ने उसकी पसंद का भोजन पकाया था जिससे तृप्त तो हो गई वह.
मगर उसे घर के माहौल में आये बदलाव को भांपते देर न लगी.
पूरे
पंद्रह दिन हो गए उसे यहाँ आये हुए. घर का माहौल उसे दुःख दे रहा था. बेटे की
बेरोजगारी और आवारागर्दी से बाबा परेशान थे. बेटे की उलटी सीधी मांगों को हमेशा
इसी भय से मान लेते कि कहीं कुछ कर न ले. बाबा को परेशान देख, उसे बहुत दुःख भी होता था. कभी
कुछ कहती तो बाबा झिड़क देते – “आखिर औलाद है मेरी.” और इतना कहने के बाद ऐसी नज़रों
से उसकी तरफ देखते कि बस वह सहम के चुप रह जाती.
बाबा को
यूँ खटते देख आखिर उसने ठान लिया कि बाबा को वो अलग तरह से ‘बाबा की परी’ बन कर समझाएगी.
सुबह
बाबा बाहर जाने के लिए तैयार बैठे थे.
“बाबा, ऐसे कब तक चलेगा. घर का माहौल
.........अगर यही हाल.............. इससे तो अच्छा मैं यहाँ से चली जाऊं.....”
“कब की
टिकट करानी है?” –बाबा के जवाब ने ‘बाबा की परी’ को आसमान से सीधा जमीन पर पटक
दिया.